कुछ जुदा होने को है
इस अँधेरे में निहाँ जो,फ़िर वो सहर होने को है
रात के इस गहन गर्भ से फ़िर सुबह होने को है
इंकलाब की ये आंधी ना रुकेगी ना थमेगी
तेरी किस्मत मेरी किस्मत फ़िर मेहरबां होने को है
हर शहर की हर गली में ये सिलसिला होने को है
हैं जो हाकेम अब भी गुमां मैं उनको सज़ा होने को है
हो रहे हैं जो सिकंदर अब वो फ़ना होने को है
था जो गर्दिश में सितारा अब वो गिरां होने को है
रो रहा था जो समंदर फ़िर खुशनुमा होने को है
धूंप से तपता रेगिस्तां अब गुलसितां होने को है
रंग-रौनक के महल अब कब्र-गाह होने को है
हो गई है इंतेहा अब फ़िर इब्तेदा होने को है
हो गया है युग पुराना फ़िर नया होने को है
राम-कृष्ण की वो गाथा फ़िर बयाँ होने को है
खो गया था जो खिज़ा में अब वो अयाँ होने को है
अब खुदा के इस जहाँ में कुछ जुदा होने को है